हर बार की ही तरह, कुछ उलझी हुई
थोड़ी थोड़ी खोई, थोड़ी सुलझी हुई
वहीं भरा हुआ बचपना, हेमा जैसा
अद्भुत खुलापन, आसमा जैसा
मै भी कुछ कम नहीं अक्सर छेड़ दिया करता हूं
बुने हुए ख्याबो को उनके सामने उधेड़ दिया करता हूं
वो मुस्कुराना इतराना रूठना मानना ये सब जो क्रियाएं है
मुझे ले जाती है अतीत की गहराइयों में
एक सफ़र है ये जो जीवन, और मै जीना भी ऐसे ही चाहता था, अनसुलझी परछाइयों में
बस अब कुछ नहीं जितना है पास वो ही सही
सदाबहार नगमो सा में गुनगुनाता हूं
मै कुछ सोचता ही नहीं, मगर जब भी सोचता हूं
लिखता चला जाता हूं
अजीब हू मगर वाजिब हूं, हूं आदत से मजबुर
है पास मेरे बस मेरा हुनर, खुदा हाफ़िज़ हुजूर
✍️ नरेन्द्र मालवीय
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